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1984 के लोकसभा चुनाव में 2 सीटें, 1990 में आडवाणी की रथ यात्रा; फिर कैसे देश में खिलता गया कमल…

लालकृष्ण आडवाणी भारतीय राजनीति की वह शख्सियत हैं, जिन्होंने अपने दौर की राजनीति को अपने प्रखर राष्ट्रवादी विचारों और अपनी रथ यात्राओं से प्रभावित किया।

साथ ही उन्होंने धर्मनिरपेक्षता के विमर्श के मुकाबले हिंदुत्व की राजनीति के माध्यम से भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रीय फलक पर मजबूती से स्थापित करने में मदद की।

आडवाणी को भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के 9 वर्ष बाद यह सम्मान दिया गया है। दोनों नेताओं ने मिलकर 5 दशकों से अधिक समय तक जनसंघ और फिर भाजपा का नेतृत्व किया। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को 96 वर्षीय आडवाणी को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान से सम्मानित किये जाने की घोषणा की। इसी साल अयोध्या में राम मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा समारोह संपन्न हुआ है।

राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा भाजपा के लिए अत्यंत भावनात्मक मुद्दे के विजयी समापन का प्रतीक है, जिसे 1990 में आडवाणी की राम रथ यात्रा के माध्यम से जनता में लोकप्रियता मिली।

साथ ही हिंदुत्वादी पार्टी भाजपा के लगातार आगे बढ़ने का रास्ता खुला।  भाजपा के एक नेता ने कहा कि यह बहुत उपयुक्त है कि मंदिर आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार को इस वर्ष मोदी सरकार ने सम्मान दिया है।

आडवाणी की रथ यात्रा कैसे बनी जन आंदोलन
भाजपा की ओर से राम मंदिर का मुद्दा उठाए जाने से पहले विश्व हिंदू परिषद सहित अन्य हिंदूवादी समूह मंदिर के लिए आंदोलन कर रहे थे। आडवाणी की रथ यात्रा को इसे एक जन आंदोलन बनाने का श्रेय दिया जाता है।

मोदी स्वयं इस यात्रा के प्रमुख आयोजक थे। आडवाणी ने छद्म धर्मनिरपेक्षता और तुष्टिकरण की राजनीति जैसे वाक्यांश गढ़े हों या न गढ़े हों, लेकिन उन्होंने ही इन्हें हिंदुत्व की राजनीति के लोकप्रिय मुहावरे में बदल दिया।

आडवाणी के समकालीनों ने राजनीतिक रणनीतिकार और संगठन-निर्माता के रूप में उनकी प्रशंसा की।

उनकी अध्यक्षता में भाजपा ने 1989 में अपने पालमपुर सम्मेलन के दौरान मंदिर निर्माण के समर्थन में प्रस्ताव अपनाकर रामजन्मभूमि आंदोलन को अपना पूरा समर्थन देने का फैसला किया, जिसे भक्त भगवान राम का जन्मस्थान मानते हैं।

भाजपा के निश्चित रूप से दक्षिणपंथ की ओर मुड़ने की राजनीतिक क्षेत्र में चौतरफा निंदा हुई, लेकिन 1984 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के बेहद खराब प्रदर्शन ने इसके कार्यकर्ताओं को निराशा कर दिया, जब वह केवल 2 सीटें जीत सकी।

वर्ष 1990 में आडवाणी की रथ यात्रा को जबरदस्त समर्थन मिला।

विभिन्न स्थानों पर सांप्रदायिक दंगे होने के बावजूद रथ यात्रा की लोकप्रियता ने भाजपा को पहली बार उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य में अपने दम पर सत्ता में ला दिया। पार्टी को अन्य राज्यों की एक प्रमुख ताकत के रूप में स्थापित किया।
 
जीवन का सबसे दुखद दिन किसे बताया 
1992 में भीड़ की ओर से अयोध्या में बाबरी मस्जिद के विध्वंस को आडवाणी ने अपने जीवन का सबसे दुखद दिन करार दिया था, क्योंकि केंद्र में कांग्रेस सरकार द्वारा भाजपा शासित सभी 4 राज्यों की सरकारों को बर्खास्त करने से पार्टी को राजनीतिक अलगाव और कानूनी परेशानियों का डर था।

आडवाणी की संगठनात्मक क्षमताओं और वैचारिक स्पष्टता ने नरम और अधिक लोकप्रिय वाजपेयी के साथ आदर्श तालमेल बिठाया। पार्टी सहयोगी ही नहीं, आलोचक भी आडवाणी की सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी पर जोर देने के लिए प्रशंसा करते हैं।

कुख्यात हवाला डायरी में आडवाणी का नाम आने के बाद उन्होंने सांसद पद से इस्तीफा दे दिया था। कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा सहित उनके कुछ सहयोगियों के गंभीर आरोपों का सामना करने के बाद आडवाणी ने उन्हें पद छोड़ने के लिए कहा था।

एक नेता ने कहा कि 1995 में जब पार्टी पूरी तरह से उनके पीछे थी, तब वाजपेयी को भाजपा के प्रधानमंत्री पद के चेहरे के रूप में नामित करने का उनका निर्णय वास्तव में पार्टी को खुद से पहले रखने का एक कदम था।

विडंबना यह है कि जिस व्यक्ति ने हिंदुत्व की राजनीति को हाशिये से मुख्यधारा में लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उन्हें खुद ही इसकी राजनीतिक वापसी का संदेह हो गया और जब ऐसा लगा कि 2004 के चुनाव में कांग्रेस के हाथों अप्रत्याशित हार के बाद भाजपा एक स्थिर स्थिति में पहुंच गई है, तो उन्होंने अधिक उदारवादी और धर्मनिरपेक्ष छवि बनाने की कोशिश की।

जिन्ना की मजार पर उनकी जमकर प्रशंसा
2005 में अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान आडवाणी ने कराची में पाकिस्तान के संस्थापक एम.ए. जिन्ना की मजार पर उनकी बहुत प्रशंसा की।

उन्होंने दावा किया कि दो-राष्ट्र सिद्धांत के प्रस्तावक धर्मनिरपेक्ष और हिंदू-मुस्लिम एकता के दूत थे। कराची ही आडवाणी का जन्मस्थान भी है।

आडवाणी की टिप्पणियों से उनकी हिंदुत्ववादी छवि को भारी नुकसान पहुंचा। कई लोगों का मानना है कि आरएसएस के साथ उनके संबंधों पर स्थायी रूप से असर पड़ा।

कई बार वह भाजपा की राजनीति में हिंदुत्ववादी संगठन के हस्तक्षेप की भी आलोचना करते थे। यह श्रेय भी पार्टी के भीतर उनकी स्थिति को जाता है, जिसके तहत उन्होंने 2002 के दंगों के बाद मोदी को गुजरात के मुख्यमंत्री बने रहने के लिए समर्थन देने सहित नेताओं की एक पीढ़ी को तैयार किया।

वह 2009 के आम चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे, लेकिन भरपूर समर्थन नहीं मिला। आरएसएस की सक्रिय भूमिका वाली पार्टी ने अंततः उन्हें बाहर करने का फैसला किया और 2014 के चुनाव से पहले मोदी को अपने राष्ट्रीय चेहरे के रूप में आगे किया।

मोदी के उत्थान और रणनीतिक कौशल को लेकर आडवाणी की नाराजगी ने उन्हें पार्टी के भीतर और भी कमजोर कर दिया। पार्टी कार्यकर्ता गुजरात के इस नेता (मोदी) के इर्द-गिर्द लामबंद हो गए, जिनके विकास और हिंदुत्व की राजनीति के कुशल उपयोग ने भाजपा को उस ऊंचाई पर पहुंचा दिया है, जिसे अनुभवी नेता ने असंभव माना होगा।

हालांकि, आडवाणी को भारत रत्न सम्मान सत्तारूढ़ दल के भीतर उनकी और देश की राजनीति में निभाई गई मौलिक भूमिका की स्वीकार्यता को दिखाती है। 

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