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जब घर वालों ने ही शिबू सोरेन को दिया था धोखा, गंवानी पड़ गई थी झारखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी…

लगभग ढाई दशक के झारखंड के इतिहास में रघुबर दास को छोड़कर एक भी मुख्यमंत्री ने पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं किया है।

जमीन घोटाला मामले में ईडी की गिरफ्तारी के बाद हेमंत सोरेन को भी चार साल बाद ही पद से इस्तीफा देना पड़ा है।

उनके पिता और झारखंड मुक्ति मोर्चा के अध्यक्ष शिबू सोरेन जिन्होंने झारखंड आंदोलन का बढ़-चढ़कर नेतृत्व किया, के नाम सबसे कम दिनों तक मुख्यमंत्री रहने और मुख्यमंत्री पद पर रहते हुए विधानसभा उप चुनाव हार जाने का भी रिकॉर्ड है। 

हालांकि, शिबू सोरेन तीन-तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री बने लेकिन कभी भी वह छह महीने का कार्यकाल पूरा नहीं कर सके। 2005 में पहली बार झारखंड बनने के बाद विधानसभा के चुनाव हुए थे।

81 सदस्यीय विधानसभा में किसी भी दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिला था। हालांकि, 30 सीटें जीतकर बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। जेडीयू उस वक्त बीजेपी के साथ थी, जिसे 6 सीटें मिली थीं। यानी NDA को कुल 36 सीटें मिली थीं।

शिबू सोरेन की पार्टी झामुमो को तब सिर्फ 17 सीटों पर जीत मिली थी। उसकी सहयोगी पार्टी कांग्रेस को 9 सीटें मिली थीं। इस तरह यूपीए को कुल 26 सीटें मिली थीं, जो एनडीए से 10 कम थी।

बावजूद इसके राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने शिबू सोरेन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया था। शिबू उस वक्त केंद्र की यूपीए सरकार में मंत्री थे और 42 विधायकों के समर्थन का दावा किया था।

राज्यपाल रजी ने तब एनडीए के सरकार बनाने के दावे को ठुकरा दिया था। बहरहाल, 2 मार्च, 2005 को शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री पद की थपथ दिलाई गई लेकिन उनकी सरकार 10 दिनों में ही गिर गई। वह बहुमत साबित करने में विफल रहे।

इसके बाद बीजेपी की अगुवाई में एनडीए सरकार बनी। अर्जुन मुंडा सीएम बने। उन्हें मधि कोड़ा समेत तीन निर्दलीय विधायकों ने भी समर्थन दिया था।

सितंबर 2006 में तीनों निर्दलीय विधायकों ने मुंडा सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद 18 सितंबर, 2006 को निर्दलीय मधु कोड़ा नाटकीय घटनाक्रम में मुख्यमंत्री बने।

उनकी सरकार में झामुमो, राजद, एनसीपी, फॉरवर्ड ब्लॉक शामिल रही। कांग्रेस ने कोड़ा सरकार को बाहर से समर्थन दिया। कोयला घोटाला में फंसने के बाद उन्हें कुर्सी छोड़नी पड़ी।

28 अगस्त 2008 को जब शिबू सोरेन दूसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बने, तब वह दुमका से सांसद थे। मुख्यमंत्री पद पर बने रहने के लिए उनके सामने छह महीने के अंदर यानी 28 फरवरी 2009 तक झारखंड विधानसभा का सदस्य बनने की संवैधानिक मजबूरी थी।

तब उनके लिए एक सुरक्षित सीट की तलाश की जा रही थी, जहां से वह आसानी से जीत दर्ज कर सकें लेकिन बिडंबना देखिए कि जिस शख्स ने सैकड़ों विधायक और दर्जनों सांसद बनाए, उसके लिए कोई भी अपनी सीट छोड़ने को तैयार नहीं था।

वरिष्ठ पत्रकार अनुज कुमार सिन्हा ने अपनी किताब ‘झारखंड: राजनीति और हालात’ में लिखा है, “जब गुरूजी (शिबू सोरेन) को चुनाव लड़ने के लिए एक सीट की जरूरत पड़ी, तो कोई भी सीट खाली करने को तैयार नहीं हुआ। यहां तक कि बेटा और बहू भी अपनी सीट छोड़ने को राजी ना हुए। पुराने दोस्तों ने भी ऐसा करने से इनकार कर दिया और कहा कि जब बेटे-बहू ने सीट खाली नहीं की तो हम क्यों करें?”

किताब में लिखा गया है कि तब उनके ही विधायकों ने उनसे बोर्ड-निगम में पदों के लिए खूब बारगेनिंग की थी। चंपई सोरेन भी तब सरायकेला से झामुमो के ही विधायक थे।

खैर, जेडीयू विधायक रमेश सिंह मुंडा के निधन से खाली हुई तमाड़ सीट पर उप चुनाव में शिबू सोरेन यूपीए के उम्मीदवार बनाए गए लेकिन झारखंड पार्टी के उम्मीदवार गोपाल कृष्ण पातर उर्फ ​​राजा पीटर ने उन्हें हरा दिया।

इस तरह छह महीने का कार्यकाल पूरा किए बिना शिबू सोरेन को दूसरी बार पद छोड़ना पड़ा था। उन्हें मुख्यमंत्री पद से 18 जनवरी 2009 को इस्तीफा देना पड़ा था। इसके बाद झारखंड में पहली बार राष्ट्रपति शासन लगा था। 

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